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सच की आज की हमारी यात्रा बौद्व परिपथ से हो कर गुजरी। कदम भारत नेपाल सीमा के करीब रोहिन नदी के पास पहुंचे तो मुझे चानकी मिल गया। वही चानकी जो बुद्व की राह को रोहिन के इस पार से उस पार तक ले जाने के लिए वर्ष 94 में तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री कलराज मिश्र के हाथों पैदा हुआ। इसे 96 में अपने पैरो पर खडा हो जाना था। इसकी जवानी तक के भरण पोषण के लिए एक करोड रुपये तक की व्यवस्था भी की गयी। राज्य सेतु निगम को इसे जवान करने की जिम्मेदारी दी गयी। चानकी को भी लगा आने वाले दिनों में बुद्व का प्रत्येक अनुयायी हमी से होकर कुशीनगर से चलकर लुम्बीन तक की यात्र करेगा। बौद्व पिरपथ का अहम हिस्सा होगा। इस बात पर वह खूब इतराया भी। इतराता भी क्यों नहीं उसके सपनों पर सरकार ने पौने एक करोड से ज्यादा खर्च भी किया। पर, वह अभी सिर उठाने की सोच ही रहा था कि वन विभाग ने उसके वजूद पर सवाल खडा कर दिया। पौने एक करोड खर्च करने के बाद वन विभाग को याद आया कि चानकी जहां पैदा हुआ है वह जगह किसी को पैदा होने की इजाजत नहीं देती। मसल वह संरक्षित वन क्षेत्र है और वहां पक्का निर्माण नहीं हो सकता। वन विभाग की इसी बात पर चानकी को अपने हाल पर छोड दिया गया। माह भर हुआ बौद्व परिपथ का नक्शा भी बदल दिया गया। बताया गया कि अब बुद्व की राह चानकी से न होकर महराजगंज से हो कर गुजरेगी। ऐसे में पचहत्तर फीसदी बढत के बाद भी चानकी जवान नही हों पाया है। लंगडा हो गया है। महज एक पैर तैयार न होने के कारण रो रहा है। उसने मौन भाषा में ही सही मुझसे सवाल किया। आप ही बताएं तथागत मुझसे क्यो रूठ गये। उन्होंने अपनी राह क्यों बदल ली। मै सरकार को दोष नहीं देता, क्योंकि सरकार के रिकार्ड में मैं अकेला ऐसा चानकी नहीं हूं जो लंगडा है और अपने एक पैर के पूरा होने का इंतजार कर रहा है। सरकारों की आदत रही है। विकास के नाम पर हम जैसो के नाम पर परियोजना बनाती हैं। जनता को विकास का सपना दिखाती हैं। करोडो रुपये का बजट बना लाखों खर्च भी करती हैं। पर, जब कोई आपत्ती आती है तो हमारे सिर से आपना हाथ उठा लेती हैं। यह भी नहीं सोचती कि जनता ने हममे जो सपना देखा उसका क्या होगा। हमारे ऊपर जो लाखों रुपये खर्च हुआ उसका क्या होगा। जन का यह धन अब किस काम का रहा। अगर हमारी जरूरत नहीं थी तो हमारे नाम पर लाखों क्यों बहाया गया। उस समय हमारे पैदा होने पर सवाल क्यों नहीं खडा किया गया जब हमारे पैदा होने पर विचार हुआ। तब नहीं तो अब तो विचार होना चाहिए। हमारे जैसी अन्य परियोजनाओं के शुभारम्भ के दौरान। सोचना चाहिए प्रदेश में देश में कितनी ऐसी चानकी हैं जो खरबों के बजट को सामने रख शुरू की गयीं। अरबों रुपया लगाया गया। पर, जनता के करीब पहुंचने से पहले उससे हाथ खींच लिया गया। ऐसे करोडों, अरबों रुपये का उपयोग न होने के लिए कौन जिम्मेदार है। कैसे इन पैसों की वापसी होगी। क्या इसका लाभ किसी को मिलेगा। सवाल के साथ वह बोला मुझे अपने पूरा न होने पर रोना नहीं आ रहा है, बल्कि ऐसे नीति निर्धारकों की सोच पर रोना आ रहा है जो योजना बनाते समय नहीं सोचते। इनको टोकने वाले भी तब टोकते हैं जब लाखों का वारा न्यारा हो चुका होता है। हमी को लीजिए। हमारे पैदा होने से पहले ही अगर वन विभाग टोकता तो शायद आज में लंगडा हो रोता नहीं। मुझ पर जनता को लाखों रुपये बहाने का कलंक नहीं लगता। इसी रुपये से मेरे जैसे किसी और चानकी का जीवन सवर जाता। मैं अकेला चानकी नहीं हूं जो लंगडा होते हुए रो रहा हूं। इस देश में मेरे जैसे लाखों करोडो चानकी हैं जो अपने पूरा न होने पर रो रहे हैं। जरूरत है हमे पैदा करने से पहले सोचने व हम पर खर्च करोडों रुपये का उपयोग सुनिश्चित करने की। खैर मैं एक अदद पुल हूं। पूरा न हुआ तो क्या आप जैसे लोगों से अधूरी परियोजनाओं को पूरा न होने पर, उन पर करोडो बर्बाद करने पर सवाल उठाता ही रहुंगा।
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