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सियासत की गाडी में वादे का इंजन

सच
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हाल ही में रेल बजट आने वाला है। आज की सच की यात्रा भी इसी के मद़दे नजर शुरू हुई। सोचा रेल से यात्रा कर रेल बजट के पहले उसकी समस्‍याओं पर लिखा जाए, लेकिन ऐसा होता इसके पहले ही एक सच से सामना हुआ। वह सच यह है कि उत्‍तर प्रदेश के महराजगंज जनपद की इस धरती के जनपद मुख्‍यालय पर रेल है ही नहीं। इसके पीछे के कारणों को जानने के लिए सवाल उठाया तो सामने पप्‍पू नाम का एक लडका खडा था । उसने अपने शब्‍दों में यहां की जो रेल कथा सुनाई वह मुझे उसके हवाले से अपने शब्‍दों में लिखने के लिए बेचैन कर दी। आज की पोस्‍ट रेल मंत्री तक अपनी बात पहुंचाने के लिए उसी के हवाले से।
उसने बताया, मैं पप्‍पू हूं। वह पप्‍पू नहीं जो पास हो गया। वह पप्‍पू जो इस शहर से बाहर जाने में फेल हो गया। इस बीच किताबों में पढता रहा छुक-छुक रेल। पर, अपने शहर में कभी नहीं दिखी छुक छुक रेल। पापा कहते हैं कि जरूर आएगी। सांसाद जी लाएंगे। पर कब तक, के सवाल पर साध लेते मौन…।
पांच साल की उम्र में स्‍कूल गया। मास्‍टर जी ने पढाया छुक-छुक चलती रेल। शहर में तो नहीं दिखी मास्‍टर जी की रेल। टीवी में दिखी तो चढने का मन हुआ। पापा से बोला तो बोले इस शहर में नहीं चलती रेल। पूछा कहां चलती है रेल। बोले मामा के गांव। इंतजार करता रहा पर नहीं जा सका मामा के गांव। इस सपने को पांच और साल गुजरे, पर न शहर में रेल आयी और न ही पहुंचा मामा के गांव । पापा से फिर कर बैठा वही सवाल। कब आएगी अपने शहर में सपनों की रेल? कौन लाएगा किताबों वाली छुक-छुक रेल। बोले. चुनाव आएगा तो आएगी। मुद़दा भी बनेगी। चुनाव आया। मुद़दा भी बनी। सांसद जी बने। उनकी सरकार भी बनी। लेकिन, श‍हर में नहीं आयी रेल…।
अब पापा समझाते हैं। सांसद जी ने खूब कोशिश की है। नक्‍शा भी तैयार करा दिया है। मामा के गांव से बुआ के गांव होते हुए दीदी के ससुराल तक रेल पटरी बिछेगी। शहर में स्‍टेशन होगा। स्‍टेशन पर रेल घंटो रुकेगी। चलेगी कब? तब पापा झल्‍लाते हैं। फिर वही पुरानी सी कहानी को थोडा और टेढी कर दुहराते हैं।
केन्‍द्र की फाइल में सक्‍सेना बाबू के नाम का अपना भी शहर है, पर रेल की मालकिन पराई हैं। बंगाल की हैं। बंगाली बोलती हैं। अपने सांसद जी की हिन्‍दी कम समझती हैं। दोष सांसद जी का नहीं है। उनकी बोली का है। छोटे मुंह फिर एक सवाल बोला। आखिर कब समझेंगी बोली ? बोले फिर चुनाव आएगा तब…। खैर जल्‍दी ही मामा की शादी है। उम्र अभी बाकी है। शायद यहां नहीं मामा के गांव फरेन्‍दा में ही सही दिख जाए छुक-छुक चलती बचपन के सपनों की रेल।
पप्‍पू ने अपनी रेल कथा खत्‍म कर लम्‍बी सांस ली तो मैं उसको समझाने में लग गया। बोला अपने देश में सियासत की गाडी वादे के इंजन से ही दौडती है। देश के प्रधानमंत्री ने महंगाई कम करने का वादा किया, प्रदेश की मुख्‍य मंत्री ने पूर्वांचल के निर्माण का वादा किया, पूर्व उर्वरक मंत्री ने गोरखपुर के कारखाने को चलवाने का वादा किया, वर्तमान सांसद ने महराजगंज में रेल लाइन विछवाने का वादा किया। इन मुद़दो पर सियासत की गाडी खूब दोडी लेकिन वादे के ही इंजन से। पप्‍पू उम्‍मीद रखो। प्रदेश का बजट भले ही निराश कर गया, देश का बजट आना अभी बाकी है। हो सकता है इसमें दौडे तुम्‍हारे सपनो की झुक झुक रेल। बदले सियासत की गाडी का इंजन।

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