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सोलह मार्च की सुबह रोज की ही तरह थी। पर, जब सबसे पहले नजरो के सामने से गुजरने वाला लोक प्रिय अखबार विस्तर पर विराजमान हुआ तो लगा आज की सुबह अलग है। उसके मत्थ्ो पर लिखा नव उमंग, नव तरंग, रचने हैं नव प्रसंग। सुखद संदेश दे रहा था। आगे बढने के उत्साह वाला यह संदेश कह रहा था कि नव बिहान है। इसके सामने बना भगवान भाष्कर का मनमोहक स्वरूप संदेश को प्रत्यक्ष के करीब ले जा रहा था। आंखे इसे देख सुख का रसपान कर ही रही थी कि अचानक कोने में लिखे मार्च जो अंक का भान कराता है पर नजर पडी तो वह समूचे उमंग पर फ़लैग मार्च करता चला गया। आखें बोल पडी या तो मार्च नहीं होता या मार्च में नव उमंग, नव तरंग रखने का प्रसंग नहीं होता। वास्तव में शान्ति को जब खतरा होता है तब सुरक्षा बल शहर की सड़कों पर फ़लैग मार्च करते है, लेकिन मार्च तो दफ़तर से ले कर दुकान तक घर से लेकर मैदान तक मार्च कर रहा है। जिसे देखो वही कहते चला जा रहा है अरे भाई मार्च है। देनदार हो या लेनदार दोनो अरे भाई मार्च है का जाप कर रहे है। अधिकतर को लक्ष्य पूरा कराने के लिए मार्च दौडा रहा तो शेष को साल भर की कमाई को टैक्स से बचाने के लिए छका रहा है। यानी सबके सिर पर मार्च सवार है। श्रीमती जी ठण्डा तेल लगाती है तो भी मार्च माफ नहीं करता। नाई चपकी करता है तो भी मार्च शान्त नहीं होता। मार्च पर कम इसे बनाने में योगदान देने वालों पर अधिक गुस्सा आता है। एक वे थे जो इकतीस दिसम्बर और पहली जनवरी बना गये। खूब पटाखे छूटे, आधी रात तक जग कर स्वागत हुआ है। सुबह एक दूसरे को फूल दे कर एसे मिला गया जेसे सारे दुख दरिद्र दूर हो गये हों। और यह एक मार्च है कि, जो मन भर कमाने मे चूक गये उन्हें तो दोडा ही रहा है, थका ही रहा है जो मन भर से अधिक जमा कर लिए उन्हें भी इसे बचाने के लिए डरा रहा है। सबकी उम्मीदों पर फ़लैग मार्च कर रहा है। सुबह के नाश्ते में टांग अडाता है तो दिन भर भगाने के बाद रात के खाने में चेतावनी देता है। शर्मा जी को याद दिलाता है तिजोरी पर टैक्स का कोई जोरदार हमला न हो इसलिए सुबह वकील साहब के यहां जल्दी जाना है। वर्मा जी को बताता है सुबह दफ़तर का पहला फोन मेरे नाम आने वाला है। मेरे प्रति अपनी तय जिम्मेदारी से आप काफी दूर हैं। इस दूरी को पाटने को सोचिए वरना अग्रवाल जी आप को छोडने की सोच रहे हैं। सरकारी साहबों को तो इसने अजीब हालत में पहुंचा दिया है। पढते वक्त शायद इनता नही जगे होंगे जितना इन्हें मार्च जागने को मजबूर कर रहा है। बडे साहब हो या छोटे साहब सब मार्च से छुटकारा पाने में जुटे है। किसी को 31 के पहले धन खपाने की चिंता है तो किसी को और धन मंगाने की। अप्रैल से जनवरी तक ग्यारह माह धूल फांकने वाला टाइप राइटर हांफने लगा है। सुरक्षा बलों के फ़लैग मार्च से भी न डरने वाले मार्च के फ़लैग मार्च से कांपने लगे हैं। इसके डर से कंपकपी तो होली में भी नजर आई जब इसका पहला कदम पडा था। तब होली के उमंग में अपने तरंग से डराता रहा। पन्द्रह कदम बाद सोलहवां कदम रख आधी दूरी तय किया तो नव वर्ष पर फ़लैग मार्च कर गया। इसके कारण न उमंग दिखा, न ही तरंग दिखा। प्रसंग रचे भी गये तो इसी के नाम, कमाने और बचाने के।
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