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प्रजा, तंत्र और प्रचंड

सच
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राजतंत्र से मुक्ति पाने के लिए नेपाल बहुत दिनों तक संघर्ष की राह पर चला। लोक तंत्र के समर्थक राज तंत्र के समर्थकों से भिडे तो राजा को प्रजा के सवालों का उत्‍तर देना ही पडा। काफी कुछ बदला। यहां तक कि चारौहो पर लगी राजा की प्रतिमाओं तक को बदल दिया गया। चुनाव हुआ। सरकारे आई गयी। जनता बदली व्‍यवस्‍था में अपने को बैठाने लगी। ढेर सारा बदलाव पहाड ने देखा पर क्‍यां इस बदलाव के लिए काफी हद तक लडे प्रचंड बदले। मेरा जवाब है नहीं। वह सत्‍ता को बदलने में तो कामयाब रहे, लेकिन जनता का प्‍यार जीत पाने मे नाकायाब रहे। पिछले दिनों उनके नेतत्‍व में बंद का जो दौर चला वह इसका प्रमाण है। जनता को लगा पहले राजा के हुक्‍म से सब कुछ ठहर जाता था तो अब प्रचण्‍ड के हुक्‍म से वही हो रहा है। अंतर मात्र इतना है कि राजा का हुक्‍म मानवाने के लिए उनकी सेना सडक पर उतरती थी और अब प्रचण्‍ड हुक्‍म को मनवाने के लिए उनके कार्यकर्ता। सेना वैध असहलहों से डराती थी तो प्रचण्‍ड के भक्‍त अवैध असलहे के बल पर अपनी वाली कराना चाहते हैं। जनता की यही सोच थी कि पिछले दिनों माआवोदियों के बंद से एक दम आजित आ चुकी जनता उन्‍हीं के खिलाफ सडक पर उतरी तो जनता और माओवादी आमने सामने हो गए। खैर समय रहते ही प्रचण्‍ड को इसका आभास हो गया और उन्‍होंने आन्‍दोलन वापस ले लिया। ऐसा नहीं करते तो शायद जिस तरह से राजा के खिलाफ उन्‍होंने काफी बडा आन्‍दोलन खडा किया था उसी तरह जनता भी उनके खिलाफ सडकों पर दिखाई देती। इसकी झलक मात्र से ही वह आन्‍दोलन वापस ले लिए तो जनता और साथ में उन्‍होंने भी राहत की सांस ली, पर उनकी सोच में अब भी कोई अंतर नहीं आया है। मुझे तो लगता है कि वह प्रजातंत्र की महज बात करते है, सोचते हैं राजतंत्र की तरह ही। अगर ऐसा नहीं होता तो एक चुनी सरकार के प्रधानमंत्री से सीधे तौर पर पद से हटने की मांग नहीं करते। लोक तंत्र में जनता के चुने प्रतिनिधि प्रधानमंत्री चुनते हैं और उनको ही यह अधिकार होता है कि वह जनता की आवाज पर प्रधानमंत्री को हटाएं या बरकरार रखें, लेकिन नेपाल में तो प्रचंड यानी माओवादी सीधे तौर पर प्रधामंत्री को हटने की शर्त पर ही किसी तरह के सहयोग की बात कर रहे हैं। संविधान सभा का कार्यकाल बढाए जाने मात्र के लिए इतनी बडी शर्त तो यही संकेत देती है कि वह मान कर बैठे हूए हैं कि जो वह चाहेंगे वहीं होगा, जनता और जनप्रतिनिधि कुछ नहीं। यह पूरी तरह से केवल और केवल राज तंत्र की ही सोच है। रविवर को तो हद हो गयी। वे एक तरफ तो प्रधान मंत्री के यह कहने पर संविधान निर्माण सभा का कार्यकाल बढाने पर राजी हो गये कि वह समय आने पर अपना पद छोड देंगे, लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अपने संविधान का एक प्रारूप जारी कर यह संकेत भी दे दिया कि सभा में चाहे जो भी सर्वसम्‍मति बने पर वे पहले से ही यह सोच बना चुके हैं कि किस के संविधान में वह काम करेंगे। मसलन जारी किए गये प्रारूप में कहा गया है कि राष्‍टपति चुनने का हक सीधे जनता को होगा और सभी शक्तियां राष्‍टपति के पास होंगी। अर्थात संसद मूक दर्शक की भूमिका में रहेगी। यानी ठीक राज तंत्र की तरह। उसमें राजा के नाते एक व्‍यक्ति अपनी सोच को जनता पर मढता था और इसमें राष्‍टपति के रूप में एक व्‍यक्ति अपनी सोच को जनता के सिर पर लादेगा। शायद राजतंत्रीय सोच है कि प्रचंड को प्रधानमंत्री का पद रास नहीं आया। असल में उनकी सोच है कि उनके लडाके राष्‍टपति के चुनाव में उन्‍हें जिता देंगे और वे बेरोटोक अपनी सोच को पहाड की जनता पर लादते रहेंगे। तब प्रजा कुछ साल के लिए ही सही निहत्‍थी होगी क्‍योंकि उनके चुने प्रतिनिध राष्‍टपति को नहीं हटा पाएंगे और तंत्र तो जिसके पास होगा उसी की करेगा। इसके बाद हर ओर राष्‍टपति के रूप में एक व्‍यक्ति एक पद के सहारे अपनी सोच का नेपाल बनाएंगा। प्रचंड को लगता है कि यह व्‍यवस्‍था उन्‍हें रास आएगी। अगर ऐसा नहीं होता तो वह संविधान निमार्ण सभा के सुझाव व उसके संविधान पर विचार करते और इसके बाद अपनी सोच को प्रकट करते, लेकिन यहां तो एक तरफ संविधान निर्माण सभा का कार्य कला बढाया गया और दूसरी ओर माओवादियों ने सभी की सोच दबाने या उस पर अपना दबाव बनाने के लिए अपनी सोच का संविधान ही प्रकाशित कर दिया। यह तो वेसै ही लगता है जैसे प्रजा मतलब मात्र माओवादी। वास्‍तव में प्रचंड अर्थात माओवादियों ने तानाशाह यानी खुद की सोच नहीं बदली तो नेपाल एक बार ि‍फर लोक तंत्र में रहते हुए भी अपने तंत्र के लिए सडकों पर होगा और तब माओवादियों के नेता प्रचंड को यह पता चलेगा कि जिस सीसे में वह जनता को अपनी छवि एक लोकतांत्रित नेता के रूप में दिखा रहे थे वास्‍तव में उनकी सोच के कारण उनकी अपनी ही छवि एक राजतंत्र के समर्थक की बन गयी थी जिससे नेपाल की जनता को मुक्ति दिलाने में कभी वह भी एक अगुवा की भूमिका मे थे।

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