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विदाई की बेला में आदर्शवाद का घून

सच
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चिदंबरम की चुप्‍पी पर लिखी गई पिछली पोस्‍ट पर आई डा एस शंकर सिंह की टिप्‍पणी ने मुझे इस पोस्‍ट को लिखने के लिए उकताया। उन्‍होंने अपने कमेंट में कहा कि सबसे बडे मोनव्रती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है। आप यह बताइए कि उनमें और श्रीमती सोनिया गांधी में सबसे बडा मौनव्रती कौन है। ऐसा सवाल कर उन्‍होंने इस पोस्‍ट को जन्‍म दे दिया। चिदंबरम के इतर श्रीमती गांधी और मनमोहन सिंह की चुप्‍पी मुझकों दूसरे तरह की लगती है। मुझे लगता है दोनों को हमने या कांग्रेस ने या विपक्ष ने खांचों में बांध दिया है। बात श्रीमती गांधी की चुप्‍पी से शुरू करते हैं। याद होगा जब वह राजनीति में आई तो हमने उन्‍हें विदेशी होने और राजनीतिक समझ से परे बता कर अस्‍वीकार करने की पूरी कोशिश की। हमारी इसी कोशिश ने उन्‍हें बचाव की मुद्रा में ला दिया। विदेशी मूल के सवाल उनके कांग्रेस से भी निकले सो, उन्‍होंने प्रधानमंत्री के पद को भी अस्‍वीकार कर दिया। इस व्‍यवहार को कांग्रेस ने आदर्श का जामा पहनाया तो श्रीमती गांधी को आदर्श प्रस्‍तुत करने का घून लग गया। उन्‍हें लगता है कि उन पर दुबारा राजनीतिक समझ से परे एवं विदेशी मूल के सवालों में न घेरा जाए इसलिए यही अच्‍छा है कि वे आदर्श दर आदर्श प्रस्‍तुत करती जाएं। यही कारण है कि वह सर्वाधिक मौन रहती है और उनके किसी भी फैसले को पार्टी प्रवक्‍ता पार्टी का फैसला बता उनको व्‍यक्तित सवालों से बचाते रहते हैं। वैसे भी श्रीमती गांधी न तो किसी सरकारी पद पर हैं और न ही भविषय में कोई सरकारी जिम्‍मेदारी लेती दिख रही हैं। ऐसे में वे सरकार का ठिकरा अपने माथें पर क्‍यों फोडे। वह भली भांति जानती है कि वह कुछ बोलेंगी तो उनकी बात पर विदेशी सोच और राजनीतिक नासमझी का ठप्‍पा लगा दिया जाएगा। यही कारण है कि वे चुप्‍प रहना ही बेहतर समझती है। बोलने वाले किसी सरकारी पद पर उन्‍हें जाना ही नही है तो वह क्‍यों इस पचडे में पडे। उनको पहली चुनौती हमने भारतीय नारी होने की दी थी सो वह पहनावे से लेकर आम बोलचाल के आचरण में भारतीय आदर्श प्रस्‍तुत करने के प्रयास में ही लगी रहती हैं। यह आदर्शवादी सोच ही उन्‍हें कांगेस अध्‍यक्ष रहते हुए भी कम बोलने पर मजबूत करती है। उनके पास तो आदर्शवाद का यह घून कांग्रेस व विपक्ष ने ही भेजा था।
वैसे भी हमारे नेताओं को अक्‍सर आदर्शवाद का घून लगता रहता है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को ही लीजिए। कार्यकाल के अंतिम दिनों में वे कितने आदर्शवादी हो गए। उनके जैसे योग्‍य और वाकपटटु प्रधानमंत्री होने के बावजूद एक उपप्रधानमंत्री की तैनाती हुई और उन्‍होंने विरोध तक नहीं किया। अंत समय में तो उन्‍होंने लखनऊ की अपनी सीट पर पार्टी के कहने के बावजूद अपना कोई उत्‍तराधिकारी तक नहीं घोषित किया। वह जानते थे विदाई की बेला में किसी को खुश न कर पाए तो किसी को नाराज तो भी नहीं करना चाहिए। एक नाम लेते तो वह खुश होता तो दर्जन पर नाम जो उस सीट के दावेदार थे नाराज हो जाते और सारा ठिकरा श्री वाजेपयी के सिर फोडा जाता। हमारे समाज में हमेशा विदाइ के समय आदर्शवाद के घून अपनी पैठ बना लेते हैं। वह अब मनमोहन सिंह के पास भी पहुंच चुके हैं। उनका मौनव्रत आदर्शवाद के घून का ही प्रमाण है। मैं चाहुंगा की आप श्री सिंह के पिछले कार्यकाल को याद कीजिए। सभी जानते हैं कि इस साल के पहले वर्ष के कार्यकाल से पिछले पहले वर्ष का कार्यकाल अच्‍छा था। पर तब एक बात नहीं थी वह यह कि अब आप की अंतिम पारी है। तब आने वाले चुनाव के लिए भी उन्‍हें ही प्रधामंत्री के रूप में पेश किया गया था और कांग्रेस उनकी प्रसंसा करते नहीं थकती थी, लेकिन इस बार मनमोहन सिंह थके लग रहे हैं। कारण साफ है अभी दूसरी पारी का एक वर्ष बीता ही है कि उन्‍हें अपनी प्रेस में कहना पडा कि वह चाहते हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें, इसमें उन्‍हें खुशी होगी। यह वाक्‍य स्‍पष्‍ट संकेत दे रहा है कि कांग्रेस ने उनकी दूसरी पारी को अंतिम पारी घोषित करने का संकेत दे दिया है। वैसे भी कांग्रेसी सरकार के किसी भी अच्‍छे काम के लिए मनमोहन सिंह व सरकार को कम राहुल गांधी को अधित श्रेय दे रहे हैं, जबकि राहुल गांधी न तो कैबिनेट में हैं और नहीं कैबिनेट के सलाहकार। सरकार के बाहर बैठे व्‍यक्ति को सरकार की उपलब्धियों का श्रेय वैधानिक रूप से दिया जा सकता है यह शायद कांग्रेसी ही बेहतर समझा सकतें हैं। खैर बात मनहमोहन की चुप्‍पी की हो रही थी। तो मेरा कहना है कि विदाई के समय तो एक लिपिक भी चुप्‍प रहता है श्री सिंह तो प्रधानमंत्री है। अगर मनरेगा की सफलता का श्रेय उनकों देने के बजाय राहुल गांधी को दिया जा रहा है तो पेंचिदा मामलों का ठिकरा वह अपने सिर क्‍यो कर फोडने जाएं। वह भी औरो की तरह अंतिम पारी में आदर्शवादी बन कर दिखाना चाहते हैं। वह जानते हैं कि अब उनको कोई ऐसा सरकारी पद नहीं मिलने वाला है जिसमें सीधे निर्णय लेने की झमता हो। वह जानते हैं कि राहुल गांधी आ गए जैसी की सम्‍भावना बन रही है तो वे 2014 के बाद संसद में महज सांसद ही रह जाएंगे। सम्‍भावना राष्‍टपति की ही शेष बचती है लेकिन इसके लिए साफ छवि का होना बहुत जरूरी है सो वह मौन रह कर इसे अर्जित करना चाहते हैं। वैसे भी दौड लगाते समय किसी से कहा जाए चाहे जितना भी दौड लो अब यह अंतिम दौड है तो रफ़तार पर फर्क पडता है। दौड के बीच में तो कम से कम उसके दौड पर विराम लगने की सूचना नहीं देनी चाहिए। मेरा मानना है कि मनमोहन सिंह अभी से 2014 के बाद की परिस्थित की तैयारी में जुट गये हैं और किसी भी ऐसे फैसले को अपने से जोडना नहीं चाहते हैं जो विवादित हो और उससे एक भी वर्ग नराज हो । वह आदर्श प्रस्‍तुत करना चाहते हैं। किसी को खुश नहीं तो किसी को नाराज तो वह कत्‍तइ नहीं करना चाहते हैं। इसीलिए चुप रहते हैं। पर चिदंबरम को तो बोलना चाहिए। अभी तो उनके भविष्‍य पर रेफरी ने कोई नकरात्‍मक टिप्‍पणी नहीं की है। उनके मौनीबाबा बनने का का कोई कारण तो नहं दिखाई दे रहा है। हां एक टिप्‍पणी और थी कि केवल चिदंबरम ही क्‍यों पूरी सरकार नक्‍सली मामले में दोषी है तो मेरा मात्र इनता ही कहना है कि सरकार के अलग अलग फैसलों का श्रेय जब उसके मंत्री ही अलग अलग ले रहे हैं तो पहली जिम्‍मेदारी नक्‍सीली मामले में चिदम्‍बरम की बनती है। वह यह भी तो नहीं बता रहे कि उनका हाथ किसने बांध रखा है। ऐसे में उनकी चुप्‍पी ज्‍यादा खतरनाक लग रही है। यह कहने का मेरा मतलत यह कत्‍तइ नहीं है कि मनमोहन जिम्‍मेदार नहीं हैं। वह प्रधानमंत्री होने के नाते पूरी तरह जिम्‍मेदार है। पर उन्‍हें यह बता दिया गया है कि अब वह अगली पारी नहीं खेल पाएंगे तो वह इस अंतिम पारी को शांत स्‍वभाव से नाट आउट के रूप में समाप्‍त करना चाहते हैं सो चुप्‍प हैं।

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