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मित्रों, काम के लिहाज से फरवरी माह में गोरखपुर पहुंचने का अवसर मिला। कार्य का भार उठाने का संकल्प लेते ही समाजवादी पार्टी के राज्य सम्मलेन में जाने का आदेश हुआ। रिपोर्टिंग में स्थान के लिहाज से यह पहला और अलग अनुभव था। कुद दिन बाद उसी स्थान यानी चम्पादेवी पार्क में बसपा के संस्थापक कांशीराम के जन्म दिन समारोह में भी जाने का क्रम हुआ। दोनो में राजनीतिक सरगर्मी खूब थी। अंतर था तो महज इतना कि सपा ने संगठन का काम बता बसपा पर निशाना साधा और बसपा ने संस्थापक का नाम ले विपक्ष को कटघरे में खडा किया। भीड के मामले में दोनों ने ही चम्पा देवी पार्क की औकात नाप दी। बता दिया कि गोरखनाथ की धरती से सत्ता की राह आसानी से पकडी और न छोडी जा सकती है। लगा राजनीति यहां अब भी खूब फल फल रही है। लोग इतने जागरूक हैं कि अपील चाहे बसपा की हो या सपा की वे समय देना नहीं भूलते। यह सच भी है। इसी के कुछ ही दिन बाद चीटी की चाल चलने वाली पीस पार्टी ने भी लोगों को बुलावा भेजा तो लोग उसे भी निराश नहीं किए। उसने भी इनकी बदौलत भीड जुटा अपनी ताकत दिखा दी। यह क्रम अभी बंद नहीं हुआ है। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा, कभी सपा, कभी बसपा तो कभी पीस पार्टी की सभाओं में राजनीति की सरगर्मी भीड की बदौलत दिख रही है। कहीं कहीं तो प्रेस गैलरी छोटी पड जा रही है। बसपा और सपा के समारोह में तो यही हुआ। पर, राजनीतिक राह के बीच एक दिन एक ऐसे स्थान पर जाने का मौका मिला जहां प्रेस गैलरी तो स्पष्ट नहीं थी, लेकिन कार्यक्रम साहित्यकारों व पत्रकारों के काफी करीब लग रहा था। आरटीओ रोड के एक होटल में समाए इस कार्यक्रम का नाम था प्रतिरोध का सिनेमा। मैं अब के पहले इसे कभी नहीं देखा था। पर, उसका एक कार्यक्रम भारतीय संगीत के सौ वर्ष देखा तो घंटा भर गुजारे बगैर नहीं रह गया, लेकिन जब जाने के लिए पीछे मुडा तो लगा जिस तरह से संगीत सौ सालों में काफी बदल गयी है उसी तरह से साहित्यकारों पत्रकारों की यह धरती भी काफी बदल गयी है। सच मानिए, बगैर किसी प्रायोजक के होने वाले इस समारोह में चुन कर लाए गये मोती रूपी कार्यक्रमों को देखने वालों की संख्या सपा, बसपा और पीस पार्टी की प्रेस गैलरी के मुकाबले आधी दूरी भी तय नही कर पाई थी, जबकि समारोह पूरी तरह आधी आबादी को समर्पित था।
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