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रिश्तों का खून भी रोके कोई कानून
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मित्रों, छह माह पहले मैं गोरखनाथ की तपोभूमि से चल कर दुष्यंत कुमार की माटी बिजनौर से सटे मुरादाबाद में उतरा। तब मन अपने से सवाल किए जा रहा था। सवाल था, तबियत के इस कवि की यह माटी तबियत से लबालब होगी या नहीं। मुझे आप मुर्ख ही कहेंगे कि में यहां इस पीतल नगरी में पीतल की चमक के बीच दुष्यंत कुमार को खोज रहा था। यहां लोग उतरते ही पीतल कारखानों की राह पूछते हैं। मैं इन बातों से अंजान रेलवे बुक स्टाल पर दुष्यंत की पुस्तक ढूढ रहा था। मैं दुष्यंत को एक कवि के रूप में ही जानता था। वह भी बिहार से सटे देवरिया का होने के नाते। वहां जेपी आंदोलन में उनकी लाइनों का जलवा था और अब छात्र राजनीति का लगभग हर भाषण उनकी लाइनों को नमन कर ही शुरू होता है। आश्चर्य तब हुआ जब बुक सेलर ने मुझे केवल एक किताब होने की बात बताई वह भी उपन्यास। आश्चर्य हुआ कि, दुष्यंत कुमार उपन्यास भी लिखते थे। कवि दुष्यंत को ढूढ रहा था और मिले उपन्यासकार दुष्यंत तो मन भारी हो गया। उपान्यास था, दुष्यंत कुमार के छोटे-छोटे सवाल। पहली रात मेरी इसी के साथ गुजरी। नई जगह थी सो नींद कहीं दूर थी, आंखों के सामने था दुष्यंत कुमार के छोटे-छोटे सवाल। इसमें दुष्यंत जी ने अपने जिला बिजनौर के एक हिन्दू कालेज को विषय बनाया है। प्रबंधकीय शोषण, अध्यापकों की दशा और लाला जी के चंगुल में फंसी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाया है।
दुष्यंत जी ने एक सवाल और उठाया है। उस लडकी का जो लाल जी की बेटी है। वह कालेज के उस अध्यापक से प्यार कर बैठती है जो उसे टयूशन पढाता है। दोनो की उम्र में भारी अंतर, संपदा के बीच खाई, एक कालेज के प्रबंधक की बेटी दूसरा उसी कालेज का मामूली शिक्षक। यह प्रकरण उपन्यास का एक छोटा सा अंश है, जिसका अंत उन्होंने नहीं किया है। मुझे लगा यह सब दुष्यंत जी ने अपनी उपन्यास मेधा में जान डालने के लिए किया होगा, लेकिन अब जबकि छह माह गुजर चुके हैं तो मुझे लग रहा है कि दुष्यंत कुमार ने उपन्यास नहीं बल्कि उपन्यास के सहारे एक सत्य कथा लिखी, पूरा उपन्यास पढने पर यही संकेत मिलता है।
””””””””””””””””””””””””””””” खैर अब इस उपन्यास को पढे व बैग में रखे छह माह बीत चुके हैं, लेकिन मुरादाबाद की आबोहवा के कुछ सवाल मुझे उस उपन्यास की याद दिला रहे हैं और छोटे-छोटे सवाल आप से पूछने को कह रहे हैं।
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घटना-एक
शिष्या प्रेमिका के लिए पति ने पत्नी, बेटे और बेटी को जहर की सुई लगाकर मौत के घाट उतारा
घटना-दो
मामा-भांजी गुप्त प्रेम के सार्वजनिक होने से जहर पी लिए
घटना-तीन
शादी होने के माह भर बाद पति प्रेमिका के घर जा दूसरी शादी करने की जिदद की, प्रमिका के पिता और भाई ने प्रेमी को गोली मार मौत के घाटर उतारा
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यह बानगी मात्र है, वरना क्राईम रिपोर्टर की डायरी इस तरह की दो दर्जन घटनाओं से भरी पडी है। इसे क्या कहें///// पति, बाप व मां बनने के बाद भी प्रेमी-प्रेमिका की भूमिका में मरने-मारने तक पहुंचने का यह क्रम तेज होता जा रहा है। बेटा, बेटी, पत्नी व पति का कोई मतलब नहीं रहा गया है। कहीं पश्चिम में पश्चिमी तरीके कुछ ज्यादा तो जवज्जों नहीं पा रहे हैं। बाजारवाद मन पर भारी तो नहीं हो चला है। सात फेरो में बधी विवाह की डोर क्या इस कदर कमजोर हो चली है कि जेल में आजीवन रहने की जोखिम के बीच भी उसे तोडना आसान हो गया है।
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सवाल इसलिए कि, आज अधुनिकता के नाम एवं विकास के सिर ठिकरा फोडते हुए शारीरिक संबंधों पर विचार हो रहे हैं, निर्णय सुनाए जा रहे हैं। किसी की ना को प्रबल सबूत बनाने की कवायद चल रही है तो किसी के हां को ही ना का तोड माना जा रहा है। मुझे लगता है कि मेरी श्रीमती जी अगर मायके जाने की जिद करें और मैं बच्चे की पढाई के लिए उन्हें रोक दू तो वह अन्य आरोपों को लेकर कोर्ट जा सकती हैं। क्योंकि, मेरा मानना है कि जब कोर्ट व मौत के रास्ते ज्यादे से ज्यादे आसान हो जाते हैं तो अंतरंग संबंधों में मान-मनौवल का समय समाप्त हो जाता है। क्योंकि, कोर्ट और सरकार दोनो ही केवल अधिकार बता रहे हैं। कर्तव्य पर जमा जुबानी भी नहीं खर्च हो रही है। सरकार तो लगता है अधिकार बता पति का न सही पत्नी का तो वोट ले ही लेगी। क्या, जिस भी धर्म के तहत लोग एक दूसरे से बधते हैं उस धर्म की डोर को मजबूत करने के लिए सरकारी तौर पर कोई अभियान या कोर्ट के स्तर से कोई फैसला नहीं आना चाहिए। क्या उपर की तीन बानगी घटनाओं को मात्र घटना मानकर सजा दिलाने तक ही सरकारी कर्म का इति श्री हो जाना चाहिए, या खून ही नहीं रिश्तों के खून को रोकने के लिए भी कोई मनोवैज्ञानिक अभियान चलना चाहिए, जवाब आप से भी तलब है।
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