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मित्रों कुछ दिनों से एक नई बहस चल पडी है। बहस सियासी रंग में रंगी हुई है। सियासी गलियारे की है। सियासत के कोख से पैदा होने वाले पद के लिए है। पर, सियासत के नाम से तौबा कर रही है। बात राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर है। चुनाव हो और राजनीति न हो। यह बात हजम नहीं हो रही है। कुछ नेता या यह कहें कि कुछ सियासी दल यह अपाच्य पदार्थ पका रहे हैं। गैर राजनीतिक व्यक्ति को भारत का राष्ट्रपति बनाने की कवायद कर रहे हैं। लग रहा है, उन्हें खुद अपनी ही जमात यानी राजनीतिज्ञों पर भरोसा नहीं रहा। तभी तो अपने जैसे किसी भी व्यक्ति का रास्ता बंद करने पर तुले हैं। यहा यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों। तब जबकि इस पद के लिए बन रही खिचडी में संप्रदाय का छौंका लगाते आए हैं और लगा भी रहे हैं। बहस में देश के सर्वोच्च पद को मुस्लिम समाज के लिए आरक्षित करते दिखाई दे रहे हैं। इसके बाद भी गैर राजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का राग अलाप रहे हैं।
खैर उनकी अपनी मर्जी, लेकिन एक बात समझ में नहीं आ रही। क्या राष्ट्रपति का काम किसी कंपनी को चलाने वाले सीइओ जैसा होता है। क्या राष्ट्रपति देश नहीं कंपनी चालने के लिए चुना जाता है। क्या एक लोतांत्रिक देश के सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति बगैर सियासी समझ के अपना काम कर पाएगा। अन्य राष्ट्राध्यक्षों से मिलने पर सियासत के बजाय गन्ना, गेहूं, गन की बात करने से उनका काम चल जाएगा। अगर हां तो उसे राजनीतिक प्रक्रिया के तहत चुनने की क्या जरूरत है। मनोनित क्यों नहीं कर दिया जाता। अगर नहीं, तो क्या निर्वाचित राष्ट्रपति को संसद राजनीति विज्ञान की कोचिंग उपलब्ध कराएगा या रबर स्टैंप की कहावत को और मजबूत करेगा। नहीं, तो लोकतंत्र अर्थात राजनीति की कोंख से बनने वाले सिस्टम के सर्वोच्च पद पर महज कोरम पूरा करने के लिए एक व्यक्ति को बैठा कर उसके ऊपर पांच साल तक करोडों खर्च करने की क्या जरूरत है।
गैर राजनीतिक और मुस्लिम के नाम पर सहमति बनाने की बात करने के साथ ही नेताओं ने एक और बडा सवाल खडा कर दिया है। वह यह कि इतने बडे लोतांत्रिक देश में राष्ट्रपति पद के योग्य गिने-चुने लोग हैं। मसलन कलाम। क्योंकि यही एक नाम है जिस पर अभी सभी हां का ही दुरूपयोग कर रहे हैं। एक सवाल और, आजाद भारत में राष्ट्रपति रहते हुए कलाम ने ऐसा क्या कमाल कर दिया जो उन्हें दुबारा इस पद पर बैठाया जा रहा है। क्या, यह देश मात्र मिसाइल से चल रहा है। आज मिसाइल मैन को योग्य कहा जा रहा है, कल क्रिकेट के भगवान को योग्य करार दिया जाएगा, परसों टेनिस गर्ल को राष्ट्रपति बनाने की वकालत की जाएगी, आदि, आदि। इस देश में हजारों क्षेत्र हैं। सभी क्षेत्र के अपने महारथी हैं। सभी गैर राजनीतिक हैं, तो क्यों नहीं सभी क्षेत्रों के महारथियों के लिए बारी-बारी से राष्ट्रपति पद अरक्षित कर दिया जा रहा है। दुख तो तब होता है जब राजनीति के बल पर संसद में पहुंचने वाले गैर राजनीतिक को योग्य करार देते हैं। ऐसे में वह संविधान की भावना, लोकतांत्रिक सिस्टम और अपने जैसे नेताओं की योग्यता पर सवाल उठाने के सिवा कुछ नहीं कर रहे हैं। असल में ऐसा कर के लोकतांत्रिक सिस्टम पर नकेल की अंतिम व्यवस्था को भी कमजोर करना चाहते हैं। पहले यह काम अपने पुस्तैनी सियासत को बचाए रखने के लिए कांग्रेस ने किया। सभी राजनीतिक दिग्गजों को किनारे करते हुए एक अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। खुद चुनाव न लडने वाले को चुनाव लड कर संसद में जाने वालों का मुखिया बना दिया। मात्र इसलिए कि गांधी परिवार की सियासी सोच में वह अपना सियासी दांव न चला सके, तबतक कि जबतक राहुल भैया राहुल बाबा नहीं हो जाते। परिणाम महंगाई के रूप में सामने है। ठीक वैसा ही महौल इस बार के राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए बनाया जा रहा है। गैर राजनीतिक की वकालत कर के यह व्यवस्था बनाने की कवायद चल रही है कि राष्ट्रपति पद पर बैठा व्यक्ति केवल सियासी लडाई देखे और वेतन भात्ता का बजट बढाए। उसे चालाक नेताओं की चालाकी समझ में न आए और लोकतांत्रिक सिंस्टम लोकतंत्र के नाम पर अपनी मनमानी को अंजाम देता रहे। एक और सवाल कि क्या भरोसा आज गैर राजनीतिक के नाम पर कलाम सरीखे नाम पर सहमति बनाई जा रही है तो कल करीना कपूर और मलिका सेरावत भी दावेदारों की लिस्ट में न आ जाएं, क्योंकि इन्होंने भी भारतीय सिनेमा को मुकाम दिया है और अपने क्षेत्र की माहिर हैं। गैर राजनीतिक हैं। बस एक नेता चाहिए जो इनका नाम ले और वह आज नहीं कल वोट की राजनीति में इन्हें मिल ही जाएगा।
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