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सीट भी रोई होगी

सच
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चला गया एक और खांटी समाजवादी
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*/मित्रों मैने अब के जीवन में चार समाजवादियों को निकट से देखा है। छात्र जीवन में जनेश्‍वर जी को। प्रत्रकारीय जीवन में बृजभूषण तिवारी, कपिलदेव सिंह व मोहन सिंह को। मोहन सिंह मेरे जनपद देवरिया के हैं। ऐसे में मोहन सिंह के साथ समय कुछ अधिक ही गुजरा। जनेश्‍वर जी सलेमपुर संसदीय सीट से चुनाव लडा करते थे। इसलिए उनको जनसभा में सुनने का अवसर मिला। सलेमपुर मेरा संसदीय क्षेत्र हुआ करता था। इन सभी के पश्‍चात बृजभूषण तिवारी जी से मुलाकात हुई। नौकरी मुझे बस्‍ती जाने को मजबूर की और मैं न चाहते हुए भी बृजभूषण तवारी जी के जिले बस्‍ती में पहुंच गया। यहां आठ साल रहा। यहां मैं मिलने पहुंचा सपाई बृजभूषण से, लेकिन मिला समाजवादी बृजभूषण से।
उन दिनों सपा की सत्‍ता थी। जिवारी जी पदाधिकारी थे, सांसद थे, लेकिन पद और संसाधन से काफी दूर। उनका रोज का सफर हाइवे किनारे अपने निजी आवास से शुरू होता था, जो बाद के दिनों में फोर लेन के कारण सिकुड गया। यहां उनके पास बहुत बडा आवास तो नहीं था, लेकिन उनके इस आवास में एक बडा पुस्‍तकालय जरूर था। इसी में पुस्‍तकों के बीच वह घंटों गुजारते थे। लोहिया के विचार उनकी पूंजी थे तो समाजवादी चिंतन पर हर तहर से मजबूत पकड। वे समाजवाद को जीते थे। इसकी झलक जलपान के साथ ही मिलनी शुरू हो जाती थी। बडे से बडे व्‍यक्ति के आने पर भी घर में बना जलपदान और भोजन ही परोसा जाता था। नेपाल और नेपाली सियासत तथा वहां के माओवाद पर उनका जो अध्‍ययन था, वह पूरे नेपाल के सामाजिक, आर्थक और राजनीतिक सफर का वाहन नजर आता था। कम नेता होंगे जो आज के दौर में विज्ञप्ति को अपने हाथ से लिखते होंगे, वह भी कार्बन कांपी के साथ। तिवारी जी यह रोज करते थे। जब भी वह कुछ मीडिया में भेजना चाहते थे तो घर से पैदल ही बस्‍ती कचहरी परिसर की और चल पडते थे, किसी कार्यकर्ता की गाडी मिल गई तो उसकी सेवा से इंकार भी नहीं करते थे, लेकिन गाडी मांगते नहीं थे। उनका पहला लोकल पडाव चन्‍द्रभूषण मिश्र जी की एक छोटी सी दुकान होती थी। चन्‍द्रभूषण मिश्र जी उन्‍हें गुरू मानते थे। यहीं एक सामान्‍य सी कुर्सी पर तिवारी जी बैठते थे। भूजा आता था और वह जितने लोगों को विज्ञप्ति भेजना चाहते थे उतने कागज और कार्बन नीचे ऊपर लगाकर अपनी कलम से स्‍वयं ही अपनी बात लिखने लगते थे। यह तब था जबकि वहीं पर कंप्‍यूटर और फोटो स्‍टेट मशीन उपलब्‍ध थी और कोई उन जैसे व्‍यक्ति से कंपोज करने या फोटो स्‍टेट करने का पैसा भी नहीं लेता, लेकिन लिखना उनकी आदत थी। इस सादकी की पडताल में मैं आगे बढा तो वह और गहरी होती चली गई। पता चला कि उनके पास केवल एक मारूति 800 कार है। वह भी उनके लडके के नाम है। आश्‍चर्य हुआ कि राजनीति के इस दौर में इस छोटी से कार से वह कहां-कहां पहुंच पाते होंगे, लेकिन इससे भी बडा आश्‍चर्य तब हुआ जब पता चला कि तिवारी जी को चाहे दिल्‍ली जाना हो या लखनऊ, वह रेल और बस की ही सेवा लेते हैं। वह भी जो सांसद या पूर्व सांसद होने के नाते सरकार ने उन्‍हें जो सुविधा दे रखी है। गोरखपुर और फैजाबाद तक की यात्रा तो वह अक्‍सर सडक मार्ग से करते थे और वह भी सरकारी बस से। तब शायद वह सीट अपने को गौर्वान्वित महसूस करती थी, जिसपर लिखा रहता है, सांसद, विधायक के लिए आरक्षित। इस सीट पर शायद ही कोई व्‍यक्ति सांसद और विधायक होने पर बैठता हो, लेकिन तिवारी जी जीवन भर इस सीट को सम्‍मान दिए। यह सीट भी शायद उनके निधन पर रोई होगी, क्‍योंकि उनके जिंदा रहने पर उसे आरक्षित होने का सम्‍मान तिवारी जी की यात्रा से मिल जाता था, लेकिन अब उसके आरक्षण पर व्‍यवस्‍था हंसेगी, क्‍योकि अब तिवारी जी नहीं है और उनके जैसे सांसद व विधायक कम ही होंगे जो बस वह भी सरकारी बस की सीट पर बैठकर संसद के लिए रवाना होते होंगे।

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