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ढाई सौ की टिकट, पांच सौ का खर्च
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*/पिछले दिनों रेल बजट के बीच रेल किराया बढाने पर संसद से सडक तक हो हल्ला मचा। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता दी ने राजनीति ही सही देश के निम्न वर्ग का मसला उठाया। स्लीपर क्लास के बढे किराए को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। उच्च वर्ग इस कदम का कडा विरोध किया। इसमें से बहुत ऐसे थे जो स्लीपर क्लास में शायद ही कभी चढे हों। सांसद रेल में चढते भी हैं तो एसी कोच में, सरकारी खर्च पर। कुछ तो छोटी से छोटी यात्रा भी संभव हो तो हवा में ही करना चाहते हैं। इस यात्रा में पैसे तो लगते हैं, लेकिन खाने पीने की किसी चीज के लिए बार बार बटुआ नहीं टटोलना पडता। ऐसे में उच्च वर्ग को यह कैसे पता चले कि असल में स्लीपर क्लास में टिकट भर ले लेने से यात्रा खर्च का समापन नहीं हो जाता।
खैर मैने रविवार को यह मुर्खता की, नहीं करने का मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। अचानक गोरखपुर से मुरादाबाद पहुंचना ही था। टिकट खिडकी पर पता चला कि अगले एक महीने तक वेटिंग है। ऐसे में आरक्षित टिकट हाथ में आता नहीं दिख रहा था। तबीयत नासाज थी। सो, बगैर आरक्षित सीट के जा पाना संभवन ही नहीं था। इसी मजबूरी ने मुझको पहुंचा दिया एक ईटिकटिंग ऐजेंट के पास। एक मित्र के सलाह पर में उसके पास पहुंचा तो उसने मुझे देखा और कहा आज नहीं, लेकिन परसों यानी मंगलवार को आप को आरक्षित सीट मिल जाएगी। शर्त यह होगी कि टिकट के पैसे के अलावा आप को सौ रुपये और देने होंगे, साथ ही अवध असम से यात्रा करनी होगी। अवध असम एक्सप्रेस रात को ग्यारह बजे गोरखपुर से रवाना होती है। यहां से मुरादाबाद का स्लीपर कोच का किराया ढाई सौ के आसपास है लेकिन जुगाड, नहीं आप इसे घुसखोरी कह सकते हैं, से तीन सौ सत्तर में टिकट मिली। गाडी आने के तीन धंटे पहले ऐजेंट ने हमे फोन कर बता दिया कि आप को कोच संख्या एस 9 में बर्थ संख्या 69 पर यात्रा करनी है। उसका निर्दश मुझे संकटमोचक का आदेश लगा और में गाडी में उसके बताए बर्थ पर सवाल हो गया। थोडी देर में टीटी आया तो मैने उसे अपना टिकट दे दिया और उसी ने अपनी कलम से टिकट पर एस 9, 69 दर्ज कर दिया। मुझे टिकट के फर्जी की आंशका के संकट से मुक्ति मिल गई। जेब में दो सौ रुपये फालतू पडे थे जो यात्रा के शेष आर्थिक पडाव को सपोर्ट करते नजर आ रहे थे। इस बीच बरबस ही नींद से मेरी मुलाकात हो गई और मैं जीवन की हर चिंता से मुक्त हो उसके आगोश में चला गया। यह सुख छीना लखनऊ रेलवे स्टेशन के सूचना तंत्र ने। करीब चार बजे ही होंगे कि उसके आगमन और प्रस्थान की कानफोडू आवाज से रूठ कर नींद मुझे अपने हाल पर छोड गई। मैं पूर्वोत्तर रेल के जोन मुख्यालय यानी गोरखपुर से चढा था और रास्ते में उसका मंडल मुख्यालय लखनऊ पडना था। यात्र का सामापन भी उत्तर रेलवे के मंडल मुख्यालय मरादाबाद पर होना था। ऐसे में सफाई और बोगी में पानी की व्यवस्था को लेकर मैं निश्चिचिंत था। मान ही रहा था कि रास्ते में दो दो डीआरएम जैसे अफसरो का पडाव है तो बोगी में झाडू लगेगा और पानी की व्यवस्था चकाचक होगी। पर, यहां में गलत साबित हुआ। लखनऊ में उतरा तो बोगी गंदगी से पटी थी और बेसिन टोटी से पानी मुक्त हो चुका था। दो चार मग पानी शौचालय में बचा था लेकिन वह भी अगले स्टेशन तक साथ छोड गया। ऐसे में मेरे दो सौ रुपये जिन्हें मैं फालतू बोल बैठा था अंगूठा दिखाने लगे। आठ बोतल पानी खरीदना पडा और इस पर प्रति बोतल पंद्रह रुपये की दर से एक सौ बीस रुपये तो चलते बने। आठ बोतल पानी में से तीन बोतल तो नित्य क्रिया को मुकाम देने में ही खर्च हो गए। पांच बोतल पानी प्यास बुझाने के काम आया, लेकिन गर्म हो-हो कर। बाहर से लू भरी हवा आ रही थी और बोगी की छत स्लीपर में यात्रा का दर्द भी बता रही थी। सहसा मेरी नजर आने वाले स्टेशनों पर यात्रियों की भागदौड पर चली गई। ऐसे में मैं जेब में बचे साठ रुपये के नियोजन प्रक्रिया से विचलित हो गया। वह पुराना गाना याद आने लगा जिसमें किसी ने लिखा था औरों का गम देखा तो अपना गम भूल गया। लोग हर स्टेशन पर तेजी से उतरते और भागते हुए वापस चले आते। माजरा तब समझ में आया जब मेरी सीट के सामने वाला यात्री तीन खाली बोतलें लिए चलती गाडी मे वापस लौटा। बाप ने पूछा पानी मिला तो उसने जवाब दिया पहले से ही इतने लोग खडे थे कि भरने का मौका ही नहीं मिला। गंदी बोगी और पानी की किल्लत। किल्लत केवल बोगी में ही नहीं हर स्टेशन पर भी। लोग उतरते, टोटी की ओर दौडते, कुछ खाली तो कुछ भरे बोतलों के साथ वापास आते। भरी बोतले मुंह को लगाते तो सकून के बजाय चेहरे पर चिंता की लकीर दौड जाती। कारण, जो पानी स्टेशनों पर मिलता वह धूप के कारण इस कदर गर्म रहता कि पीना मुश्किल। इस मुश्किल को आसान करने के लिए लोगों ने एक ऐसा उपक्रम कर डाला कि मुझे लगा इनसे बडा मुर्ख कोई नहीं है। शाहजहांपुर स्टेशन के आउटर पर गाडी रूकी तो बगल में एक पंपसेट से मेंथा की सिंचाई हो रही थी, ठंडे पानी के लिए लोग गाडी से उतर कर पंपसेट तक पहुंच गए, यह सोचे बगैर कि गाडी चली तो वह वहीं छूट जाएंगे जहां से कोई साधन मिलना भी मुश्किल है। मैने अपने को मास्टर के अंदाज में लाते हुए एक को डांटा तो उसने प्यासे बच्चे का हवाला देते हुए सवाल पूछ डाला कि क्या करें बाबू, आप जैसा पैसा नहीं है कि इसके लिए पैसे से पानी खरीद लें, स्टेशन का पानी गर्म है, बोगी में पानी है नहीं, दूर न जाएं तो क्या करें। उसका सवाल वाजिब लगा। अपने लिए भी और उन लोगों के लिए भी जो स्लीपर के किराए में बढोत्तरी की पैरवी करते हैं, पर हवाई यात्रा के किराए में बढोत्त्री से डरते हैं। हवाई जहाज में भारी किराए पर अगर शराब तक मुफ़त मिल सकती है तो क्या छोटे किराए में गाडी में पानी तक फ्री नहीं मिल सकता। अगला सवाल मेरे पैर के नीचे था, गंदगी। जवाब तब मिला जब तीन-तीन स्टेशनों के अंतराल पर दो लडके आए और झाडू लगा कर बारी-बारी से हर सीट पर हाथ फैला करीब सौ सवा सौ रुपये ले गए। तब पता चला लोग पैसा तो देना चाहते हैं, लेकिन सुविधा की गारंटी पर, लेकिन हर सरकार पैसा लेना चाहती है, लोग इसकी पैरवी भी करते हैं, पर हवा और एसी में यात्रा करने वाले सुविधा की गारंटी के मुद़दे पर मौन ही रहते हैं। साढे छह किलोमीटर की यात्रा में मुझे न तो बोगी की सरकारी सफाई का उपक्रम दिखा और न ही नित्य क्रिया निपटाने तक के लिए पर्याप्त पानी। हां, एक ही बोगी में एक ही टिकट पर दो तस्वीर जरूर दिखी। एक पैसा से गाडी में चढने के पहले या बाद में सीट पा जाता है, पानी खरीद कर नित्य क्रिया तक से छुटकारा पा लेता है, बिरियानी खाता है और दूसरा उसी टिकट पर वेटिंग का ठप्पा लिए शैचालय के बगल में फर्श पर बैठा रहता है, पानी के लिए हर स्टेशन पर दौड लगाता है, दस रुपये की पूडी सब्जी खाने के लिए भी दस बार बटुआ का वजन करता है। ऐसे में एक सवाल उठा, क्या किराया बढ जाने से यह समस्या खत्म हो जाएगी, सफाई होने लगेगी, पानी मिलने लगेगा, टीटी पैसे लेकर बर्थ नहीं बेचेगा। वेटिंग का सिस्टम खत्म हो जाएगा। जवाब आप दीजिए, क्योंकि सवाल आम आदमी का है।
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