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वो कागज की कश्‍ती

सच
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मई गुजर गया। बारिश नहीं गुजरी। गुजरा अपना गांव। पिछले दिनों गांव की यात्रा बच्‍चों के छुट़टी की लिहाज से बहुत अच्‍छी गुजरी, लेकिन गांव में अपने दौर का बचपन नहीं दिखा। वह अस्‍सी का दशक था। बारिश थी और बारिश का पानी। पानी गांव की गलियों को नालियों का रूप दिया करता था। ये नालियां हमें नदियों जैसी लगती थी। इसमें हम अपनी कागज की कश्‍ती को बिन चप्‍पू के चलाते थे। वह बचपन ही था कि अपनी कश्‍ती को दूर तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करते नहीं थकते थे, लेकिन आज का एक दिन है न वह कागज की कश्‍ती कहीं दिखती है और न ही बचपन को बारिश के पानी का इंतजार। लगा जैसे गांव की गलियों में बचपन कहीं खो गया है। रह गये हैं तो बचपन से काफी दूर महज बच्‍चें। ऐसे में छुटि़टयों के बावजूद गांवों से उछलकूद गायब है।यहां न बारिश का पानी दिखा न ही बच्‍चों को कागज की कश्‍ती याद है। हां हमारे समय के सहपाठियों को अब भी सब कुछ याद है। वे यादों को साझा करते हुए याद दिलाते हैं कि एक वह दिन था जब हमारे हाथों बनी कागज की नाव हिचकोले खाती थी। दूर तक लोगों को आकर्षित करती थी। शायद यही आकर्षण था जिसने किसी शायर को कागज की कश्‍ती व बारिश का पानी जैसा गीत लिखने को मजबूर कर दिया। पर, अब इसके मायने बदल गए हैं। नाव बनाने का बच्‍चों का हुनर अतीत के पन्‍नों में गुम हो गये हैं। गुम हो गए हैं वे छोटे-छोटे खेल भी जो घर आंगन में उछलने कूदने को उकसाते थे। सोचने पर लगा दोष केवल बच्‍चों का नहीं है। छुटिटयों को मौज देते रहने वाले बुजुर्गों का भी है। बुढापा तो गांव में अब भी है, लेकिन बच्‍चों के प्रति उसकी तासीर नही है। मां-बाप के पास टाइम नहीं है। बच्‍चों के पास गुल्‍ली-डंडा नही है। कंची-गोली नहीं है। लडकियों के पास गोटियां नहीं है। लडकों के पास सिक्‍का-डग्‍गा नही है। गोबरउयल खेलने का डंडा गायब है। कबडडी की लकीर मिटती जा रही है। ओल्‍हा-पाती के पेड सूने हो गए हैं। आ गया है कम्‍प्‍यूटर और भा गये हैं क्रिकेटर। एक बच्‍चो को अकेलेपन का आदी बना रहा है। दूसरे की नकल के लिए मैदान नहीं मिल पा रहा। कुल मिलाकर छुटटी से सेहत की छुटटी हो गयी है। वरना जब बच्‍चे सिक्‍का-डग्‍गा लेकर गांव के सीवान तक दौड लगाते थे तो अलग से सेहत के लिए टहलवाने व दौडाने की जरूरत नहीं पडती थी। ओल्‍हा-पाती में उनकी सेहत तो बनती ही थी, पेडों पर चढने का प्रशिक्षण भी मिल जाता था। गज भर जमीन में कंची-गोली की प्रतियोगिता हो जाती थी, तो इसमें लगातार उठक-बैठक के साथ ही हाथ की अंगुलियों की कसरत भी हो जाती थी। इसके लिए अब यंत्र खरीदे-बेचे जा रहे हैं। गुल्‍ली-डंडा का क्‍या कहना। सवा हाथ लकडी मिल जाने मात्र से बडी से बडी प्रतियोगिता सम्‍पन्‍न हो जाती थी। बित्‍ता भर लकडी से गुल्‍ली बन जाती थी और हाथ भर से डंडा। बच्‍चे मस्‍त रहते थे और अभिभावक उनकी जिद से दूर। इस तरह के अनेको छोटे-छोटे खेल थे जो बगैर खर्च के बच्‍चों को आपसी भाईचारा, एकता और समाजिकता से जोडते थे। उनकी सेहत को बेहतर बनाते थे। साथ ही जोडने-घटाने, चढने-उतरने जैसे ढेरो जरूरी ज्ञान और प्रशिक्षण देते थे। ऐ गांव में कहीं-कहीं दिखे भी तो कराहते हुए। शहर में तो इनकी मौत ही हो गयी है। यहां कबडडी है भी तो खेल के लिए नहीं, बल्कि प्रतियोगिता के लिए। वह भी दर्जन भर बच्‍चों के बीच। फिर कापी के रददी पन्‍नों से कागज की नाव बनाना और उसे बारिश की पानी में छोड कर दूर तक सही सलामत पहुंचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने की बात तो बच्‍चों के सपनों में भी नहीं दिखती । लगता है समय के साथ बच्‍चों से बचपना कहीं दूर चला गया है और हम उनके बचपन में बचपना खोजना हीं नहीं चाहते::।

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