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पिछले माह दस दिन देवरिया में गुजरा। इसी में से एक दिन चौदह किलोमीटर दूर अपने गांव जाने का मौका मिला। रात खुले आसमान में गुजरी। वर्षों बाद बंद कमरे से बाहर खाट पर गर्मी के मौसम में खुली ठण्डी हवा से रात भर साक्षात्कार चला। दाहिने था नीम का पेड तो सामने था तुलसी का अवशेष। नहीं था तो घर के बगल में वर्षों तक गरमी को मायूस करते रहने वाला वह पीपल का बूढा पेड, जो कभी हमारे गांव को अपना नाम दे गया, पिपरा शुक्ल। लोगो को जब भी हम अपने गांव का नाम बताते तो वह पूछ पडते वहां पीपल के पेड ज्यादे हैं क्या। तब हम जवाब देते, एक दो नहीं, एक दर्जन से भी अधिक। वास्तव मे उस समय गांव में अंदर से लेकर बाहर सीवान तक पीपल बहुतायत में थे तो करीब नब्बे फीसदी दरवाजों पर नीम के पेड भी पर्यावरण संरक्षण में लगे थे। तुलसी तो कहीं भी मिल जाती थी। हम नीम का दातुन करते थे। कभी कभी तुलसी का पत्ता चबा लेते थे। पीपल को हाथ भी नहीं लगा सकते थे, क्योंकि इसे क्षति पहुंचाना धर्म के खिलाफ था। ये तीनों हमारे लिए भले ही महज पेड थे पर दादा दादी के लिए आस्था के केन्द्र थे। दादा सुबह उठते तो सबसे पहले नहा धो कर पीपल के पेड को एक लोटा जल समर्पित कर दिन की शुरूआत करते थे। उनका मानना था कि पीपल के पेड पर भगवान वासुदेव का वास होता है। उनकी पूजा से दिन और जीवन दोनो अच्छा गुजरता है। दादी की दिनचर्या भी कुछ ऐसे ही गुजरती थी। वह सुबह नहा कर पहले नीम के पेड को जल समर्पित करती थीं तो तुलसी की प्यास बुझाना भी नहीं भूलती थीं। उसके हिस्से का दो लोटा जल नियमित रूप से नीम और तुलसी को समर्पित होता था। शाम को भी वह तुलसी को दस मिनट समय देती थी। कातिक में तो इस छोटे से पौधे के सामने वह घी का दीप भी जलाती थीं जो उन्हीं के द्वारा मिट़टी का बना होता था। उन्हें अक्सर यह कहते समझाते सुनते थे कि नीम पर देवी मां का वास होता है। जल देने से आशीवार्द मिलता है। तुलसी भी लोक कल्याण के लिए काम करती है और उसके पत्ते तो कई रोगों को समाप्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इसी तर्क को प्रमाणित करने के लिए वह अक्सर तुलिस की चाय से सभी का साक्षात्कार कराती थीं। अनाज भण्डारण में नीम की भूमिका को उसकी पत्ती रख कर बताती थी कि इससे कीडे नहीं लगते हैं। यही नहीं डण्ठल दातुन के काम आता था तो पत्ती को तने से जोडने वाला पतला भाग दांत खोदने के लिए खरीका के रूप में घर के बाहर बांध कर लटकाया जाता था। तब हम बहुत छोटे थे और इन तीन पेडो के वैज्ञानिक रहस्य को समझ पाने में अक्षम थे। शायद यही कारण था कि दादा दादी इनके वैज्ञानिक पक्ष को समझाने के बजाय इन्हें आस्था का केन्द्र बता इनके संरक्षण के प्रति हम सभी को सतर्क रखते थे और देवी देवता के नाम पर ही सही एक लोटा जल रोज इन्हे भी समर्पित करते थे। बाद में जब हमे पता चला कि ये तीनों पेड तो पर्यावरण सरक्षण के स्तम्भ है। सबसे अधिक कार्बन यही सोखते हैं और आक्सिजन भी भरपूर मात्रा में देते हैं तो मालूम हुआ कि बगैर किसी हो हल्ला के दादा दादी की आस्था किस तरह से पर्यावरण संरक्षण के संकल्प को लेकर सतर्क थी। आज जब विश्व पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण के प्रति सचेत करते हुए अखबार सामने आए तो लगा उस समय दादा दादी की मौत ही नहीं हुई, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का पारंपरिक संकल्प भी मरा। काश, दादा-दादी की परम्परा को हम जीवित रखते हुए चले होते तो रोजना के एक लोटा पानी से ही सही ये तीनों पेड उनके बगैर दिन हीन नहीं होते। पर, न जाने कब हमने पीपल और तुलसी को हासिए पर कर दिया। टूथ ब्रश ने दातुन के झंझट को समाप्त कर दिया तो नीम भी हमारे लिए खास नहीं रही। हम संगमरम के मंदिर में लोटा भर-भर कर पानी को आस्था के नाम पर कुर्बान तो कर रहे हैं पर पर्यावरण संरक्षण के इन विशेष तीन पेडो की प्यास को नहीं बुझा पा रहे हैं। अब गांव का नाम तो पिपरा शुक्ल है पर पीपल इतने कम बचे हैं कि कर्म काण्ड के लिए भी मीलों दूर जाना पडता है। तुलसी खोजे नहीं मिलती है, हर दरवाजे और हर आंगन का इसका स्थान तो कब का खत्म हो गया है। नीम तो जैसे हम सभी से रूठती जा रही है। आइए आस्था के सवाल पर ही सही, दादा दादी की राह पर चलते हुए इन तीनों पेडो से जुडे पारंपरिक रिश्तों को मजबूत बनाएं। पर्यावरण दिवसर पर ही नहीं जब भी समय मिले नीम, पीपल व तुलसी के पौधे लगाएं। दादा-दादी की पैदा की संपत्ति को भोग रहे हैं तो उनके संकल्प को भी व्यवहार में लाएं, हर दिन उन्हीं की तरह नीम, पीपल और तुलसी के हिस्से का लोटा भर पानी उन्हें उपलब्ध कराएं।
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