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मनमोहन के आठ वर्ष, अर्थ…व्‍यर्थ…अनर्थ

सच
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मनमोहन सिंह आठ वर्ष पहले देश के प्रधानमंत्री बने। बने क्‍या सोनिया गांधी ने बनाया। बनाया इसलिए कि राजनीति में उनके इस छलांग की उम्‍मीद किसी को नहीं थी। उम्‍मीद थी तो मात्र अर्थ की उन्‍नती की। भारी मन से इसी कारण उन्‍हें आम जन ने स्‍वीकार कर लिया। सियासत को लेकर संशय था। क्‍योंकि वह कभी कोई आम चुनाव नहीं लडे थे। ऐसे में एक उम्‍मीद पैदा हुई कि अर्थशास्‍त्री पीएम मिलने से धर्म प्रधान से कषि प्रधान बना देश अर्थ प्रधान तो हो ही जाएगा। अर्थ प्रधान का यह मतलब कतई नहीं था कि अर्थ के लिए गरीब जार-जार रोएगा। उसे 28 रुपये में ही खा-पी कर दिन भर हंसते रहना होगा। अर्थ प्रधान की उम्‍मीद आर्थिक मजबूती से थी। यही सपना दिखा कांग्रेस ने उनके प्रति देश को समझाया। साथ ही सोनिया गांधी के इस निर्णय को दूरदर्शी बताया।
मनमोहन का पहला कार्यकाल अर्थ के ही तराजू पर तोला भी गया। विकास की डंडी बराबर होने के लिए पांच साल इंतजार किया गया। एक और मौका दिया गया। अब जबकि पीएम के आठ साल गुजर गए हैं। उन्‍हें राष्‍टपति के बहाने विदा करने की योजना बनाई जा रही है तो वह डंडी मारते हुए दिखाई दे रहें हैं। यह मैं नहीं, उनके अर्थ शास्‍त्री संसार का तराजू यानी रेटिंग एजेंसी मूडीज कह चुकी है। इस एजेंसी ने काफी पहले बताया था कि 2012-13 की पहली तिमाही में विकास दर छह प्रतिशत से भी नीचे जा सकती है। इसके बाद भी मनमोहन के मन में सियासी डंडी मारने को लेकर कोई ग्‍लानि नहीं उपजी। वह डंडी मारते रहे और इस तथ्‍य से अनभिज्ञ रहे कि उनके अंदर सियासी डंडी मारने के गुण और दोष दोनो नहीं है। ऐसे में कभी सोनिया तो कभी प्रणब के बताए नुस्‍खे अपनाते रहे। अपना मूल शास्‍त्र यानी अर्थ शास्‍त्र गवांते रहे। असल में वह समझ रहे थे कि धर्म प्रधान से कषि प्रधान बने इस देश में उनकी अर्थ प्रधान कामचोरी को कोई देख नहीं पाएगा। मगर, देश तो देश, विदेश में सात समंदर पार बैठी उनके अर्थ संसार की रेटिंग एजेंसी एस एंड पी नजर गडाए हुए थी। उसने भारत की अर्थ व्‍यवस्‍था को निराशाजनक बताते हुए मनमोहन सिंह की डंडी मारने की कला का खुलासा करते हुए रेटिंग पर उन्‍हें कटघरे में खडा कर दिया। डंडी मारने की कला का खुलासा हुआ तो सियासत भी खुल कर हुई। विपक्ष जमकर बोला, पर मनमोहन ने तवज्‍जो नहीं दी। दें भी क्‍यों, विपक्ष का तो काम ही होता है वजह-बेवजह बोलना। उन्‍होंने विपक्ष के बोल को बेवजह ही समझा होगा। पर, उन्‍हें नहीं मालूम था कि आर्थिक डंडी पर नजर रखने वाली एजेंसी सियासी टिप्‍पणी भी कर सकती है, लेकिन हुआ ऐसा ही। रेटिंग एजेंसी एस एंड पी यानी स्‍टैंडर्ड एंड पुअर्स ने डंडी मारने के लिए उन्‍हें न केवल जिम्‍मेदार ठहराया, बल्कि इसमें उन्‍हें अपना दिमाग न लगाने का दोषी ठहराया। एस एंड पी ने कहा- मंत्रिमंडल में मंत्रियों की नियुक्ति सोनिया और सहयोगी दल के नेताओं द्वारा की जाती है। यानी मनमोहन सिर्फ डंडी मारते, मारने के तौर-तरीके नहीं तय करते। इस टिप्‍पणी के साथ मनमोहन का अर्थ शास्‍त्र व्‍यर्थ शास्‍त्र की राह पकड लिया। इसे प्रमाणिक करार दे दिया विप्रो प्रमुख अजीम प्रेम जी और इंफोसिस के एन नारायण मूर्ति ने। इन्‍होंने तो रही-सही कसर भी यह कह कर पूरी कर दी कि देश नेतत्‍वविहीन है। अर्थात पीएम की कुर्सी पर बैठे मनमोहन व्‍यर्थ हैं। उनका न तो कोई अर्थ है और न ही कोई अर्थ शास्‍त्र।
सत्‍यता यही है, क्‍योंकि गुजरे वर्षों में मनमोहन सरकार में जो हुआ वह उन्‍हीं के मौन व्रत और सियासी असफलता के चलते हुआ। वह सियासी कर्म में डंडी मारते रहे तो उनके सहयोगी उनके प्रिय विषय अर्थ में डंडी मारे। नतीजा भ्रष्‍टाचार, महंगाई और कुशासन सत्‍तासीन हो गया। दूरसंचार घोटाला, सीवीसी की नियुक्ति और राष्‍टमंडल जैसे घोटाले उनकी सियासी जमां पूंजी बन गए। अर्थशास्‍त्री प्रधानमंत्री महंगाई, मुद्रास्‍फीत, आर्थिक विकास, आर्थिक सुधार और रुपये की साख बचाने में असफल रहे। अब जबकी उन पर चारों ओर से हमला हो रहा है तो इसके महत्‍वपूर्ण कारण भी हैं।
आठ साल के उनके कुछ कदमों पर नजर डाली जाए तो लगातार चुनावों में हार, भ्रष्‍टाचार के आरोप, आर्थिक सुधारों की सुस्‍त रफ़तार, अन्‍ना हजारे का आन्‍दोलन, सोनिया गांधी की बीमारी का रहस्‍य आदि ऐसे हैं जिनपर मनोमोहन मौन व्रत रहे और सुधार के सारे प्रयास उनके हाथ से एक-एक कर जाते रहे। ये एक अर्थशास्‍त्री प्रधानमंत्री के आठ साल को व्‍यर्थ साबित करने के लिए काफी हैं। अर्थ से व्‍यर्थ तक पहुंची उनकी पीएम यात्रा अब अनर्थ की ओर बढती दिख रही है। ममता व मुलामय द्वारा राष्‍टपति उम्‍मीदवार के रूप में उनका नाम प्रस्‍तावित करना इसी का प्रमाण है। प्रमाण ही नहीं यह मजबूत प्रमाण माना जाना चाहिए। क्‍योंकि, ममता की पार्टी के वोट से जहां मनमोहन बहुमत के प्रधानमंत्री बने हैं वहीं मुलायम सिंह यादव की पार्टी परमाणु मुद़दे से लेकर कई मुद़दों पर वोट कर के उनकी हार को जीत में बदलती रही है। ऐसे में इन दोनो का यह कहना कि मनमोहन को राष्‍टपति बना दिया जाए, वह भी तब जबकि अभी उनका कार्यकाल दो साल शेष है।
लोकतंत्र में राष्‍टपति का पद सर्वोच्‍च है, लेकिन एक बात भी पूरी तरह साफ है कि वह शासन करने वालों पर शासन करता है न कि प्रजा पर। उसे वैसे भी रबर स्‍टैंप कहा जाता है और यह तो हर आदमी जानता है कि भारतीय लोकतंत्र में शासन करने और निर्णय लेने में प्रधानमंत्री का पद ही सर्वोच्‍च होता है। यह जानते हुए भी मुलामय और ममता का उन्‍हें पीएम रहते हुए राष्‍टपति बनाने का प्रस्‍ताव यह स्‍पष्‍ट कर देता है कि अब उन्‍हें भी मनमोहन की काबिलीयत पर भरोसा नहीं है। उनके भी इंतजार का सब्र टूट गया है, जैसे महंगाई से पीडित जनता का। विपक्ष तो उन्‍हें सबसे खराब प्रधानमंत्री का तमगा दे ही चुका था, अब उनके अपने सहयोगी दलों ने इस पर मुहर लगाकर यह साबित कर दिया है कि मनमोहन वह पले प्रधानमंत्री है जिन्‍हें लम्‍बा शासन करने का अवसर तो मिला, लेकिन न तो वह अपने साहयोगियों का विश्‍वास जीत पाए और न ही जनता को विश्‍वास में ले पाए। अब यह मनमोहन को सोचना है कि वह जाएंगे तो अपने साथ अपने जेहन में क्‍या ले जाएंग, महंगाई, भ्रष्‍टाचार, कुशासन या समय शेष रहते ही ममता और मुलायम द्वारा दिया गया विदाई का प्रस्‍ताव। विदा तो उन्‍हें होना है, इसकी तैयारी कांग्रेस भी कर रही है, वह गुजरे तीन साल से उनकी विदाई और राहुल गांधी की ताजपोशी का लग्‍न खोज रही है, लेकिन कांग्रेस में बैठे कुछ राहु केतु ऐसा होने नहीं दे रहे। वे आए दिन ऐसी परिस्थितियों बना रहे कि हर समय राहुल गांधी के कदम राहु नजर आ रहा है। ऐसे में राहुल ने अगर कदम बढाया और हालात उत्‍तर प्रदेश के चुनाव जैसे हुए तो गांधी परिवार और कांग्रेस का अंतिम दांव भी जाया जाएगा। तब इस अनर्थ के ठीकरे के लिए भी मनमोहन का अपना सिर आगे करना होगा। वह कर भी लेंगे, क्‍योंकि इसी कला के कारण आठ साल से प्रधानमंत्री जो हैं।

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