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मौज की मौत, भरोसे का कत्ल, दोषी कौन

सच
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मित्रों, यह सच्‍चाई उस शहर की है जो चार दिन पहले तक दिल्‍ली कांड को लेकर गुस्‍से में था, कानून के साथ ही पुलिस को जिम्‍मेदार ठहरा रहा था, दोषियों को मौत की सजा देने की मांग कर रहा था। युवा अपनी आजादी के लिए मोमबत्तियां जला रहा था, लेकिन आजादी से परिपूर्ण इस माटी की बेटी ने अपने ही बाथरूम में अपने मां बाप के भरोसे का कत्‍ल करते हुए अपने प्रेमी के साथ कुछ इस तरह माई बाडी इस माई राइट में खोई की सदा के लिए सो गई। दोनो की नग्‍न लाश मिली और लाश के पास से शराब की खाली बोतल के साथ सेक्‍स उत्‍तेजक दवाइयां। अब कोई किसी प्रकार की मांग नहीं करा रहा है, मां बाप भी जांच की अर्जी नहीं दे रहे हैं। ऐसे में दोषी कौन,, को खोजने मैं निकल पडा पीतल नगरी में::::::
दिल्ली दुष्कर्म कांड से शहर गुस्से में था, है। लेकिन, गौर ग्रेशियस कालोनी कांड से पूरी तरह आहत। दिल्ली कांड पर चार दिन पहले तक पुलिस, कानून को आइना दिखाने वाले अब गमजदा। हां, वक्तिया पुलिस इस दफे सक्रिय है। उसे सुराग चाहिए युगल मौत का। पर, परिजन किसी भी उम्मीद से परे। कारण सभी जानना चाहते हैं। लेकिन जरूरी है जानना निजी सुख के पटाक्षेप से उतराई नए रिश्ते की तासीर।
पीएसी तिराहे की शाम आज चौथे दिन युगल प्रेमी कांड से बोझिल है। दाल की रेहड़ी लगाने वाले ने उतना ही मसाला डाला है, जितना कि रोज। लोग भी कुछ उतने ही हैं जैसा शाम दर शाम। रूटीन के आदी मुहल्ले के बुजुर्ग रामआसरे बढ़ते हैं। दाल मांगते हैं, स्वाद साधते हैं, लेकिन रूटीन के चटखारे नहीं लेते। पूछते हैं, रेहड़ी के मालिक से डाक्टर साहब के मामले में कुछ पता चला। यह वही डाक्टर साहब हैं जिनके अपार्टमेंट में उनकी बेटी दिल्ली के एक बाप के बेटे संग मृत पाई गई। रेहड़ी वाला, जवाब के बदले सवाल देता है। बताता है इस हाल में कौन किससे पूछे। दोनों के बीच एक अधेड़ की शोक संवेदना प्रवेश होते ही चर्चा की सोच बदल देती है कोई क्या पूछेगा, कोई क्या बताएगा, मरने वाले तो गए, डाक्टर साहब को कहीं का नहीं छोड़ा, बेटी को बेटे की तरह पाला, पढ़ाया, सबकी तरह वह भी सोचे होंगे, उसके हाथ पीले करेंगे, दिल पर पत्थर रख कर विदा करेंगे और फिर जी भर कर रो लेंगे, लेकिन उसने तो इस कदर मौत को गले बांधा कि डाक्टर साहब को रोने के लायक भी नहीं छोड़ा।
खबर के लिए क्राइम की बात ही चाहिए थी, नए तथ्य खोजने थे, सो कदम कुछ ही दूरी पर खड़े चार नए रंगरूटों की ओर मुड़ गए। सोचा यह पुलिस वाले हैं, कुछ जरूर बताएंगे। पर, अंदाजा गलत निकला। उन्हें भी मौत के कारणों की तलाश थी। चारों मौज की उम्र में थे, लेकिन इस मौत को मस्ती से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे। एक दार्शनिक सा हो चला, बोला आप लोगों को हर पल कारण ही चाहिए होता है, नहीं मिले तो हम पुलिस वाले दोषी, अब आप ही बताइए पुलिस किसे पकड़े, क्या पूछे, जो अब तक दिखाई दिया क्या वह कम है। उसका साथी तो जैसे एक ही मिनट में पूरी घटना के पर्दाफाश पर अड़ गया लाश देख कर अंधा भी बता देगा कि मौत की इंतहा तक पहुंची मौज ही कारण है। असल में वही मरी है, जो भी मौज को मौत के करीब तक ले जाने की जुर्रत करेगा, मरेगा।
दाल की रेहड़ी से लेकर पुलिस की चौकी तक व बुजुर्गो से लेकर जवानों तक बढ़े कदमों से एक बात स्पष्ट हो गई। इस बार कटघरे में पुलिस, कानून नहीं संस्कार और संस्कृति है। रोज बन रहे नये रिश्तों की तासीर है। यहां मरने वाले का शरीर तो बेटे-बेटियों का था, लेकिन असल में मरी मौज मस्ती। हां, इस मौत के खंजर से एक कत्ल भी हुआ, वह था मां-बाप के भरोसे का, जो अब न तो बेटे बेटियों को बुढ़ापे की लाठी बनाना चाहते हैं और न ही उनसे किसी धन की उम्मीद करते हैं। पर, इतना तो जरूर चाहते हैं कि उनके धन का उपयोग हो, उनकी संतानें नेक हो, कहीं सिर न झुकाना पड़े, लेकिन यहां तो जिंदगी की राह ही कट गई। उस मां की जो अपनी बेटी जैसी हर बेटी को बनने की सलाह देती थी। उस बाप की जो बेटी को बेटा कह पुकारता था और उस बहन की जो अपने हर कदम में अपनी दीदी को श्रेय देने से नहीं चूकती थी। शायद यही कारण है कि लाश के रूप में मिले बेटे को ले जाने के वक्त भी एक बाप ने जहां किसी को अपना दिल्ली स्थित पता नहीं बताया वहीं चिर निद्रा में सोई बेटी से मिलने की हिम्मत भी उसका बाप नहीं जुटा पाया। आखिर दोषी कौन हैं, पुलिस, कानून, मां-बाप या उन जैसी दो संतानें। आखिर किसकी और क्यों कराएं जांच, अपने ही बेटे बेटी के हाथों लुटे दो मां-बाप..।

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